"होली की गुजिया रंगों के फुहार
दही बड़े ठंडाई और दोपहर भर का खुमार
कभी कभी धड़कन रुक सी जाती है,
कभी कभी पुराने दिनों की याद आते है"
२०११ एक और होली चली गयी - सुबह शाम की मेहनत में.
ऑफिस से होटल और होटल से ऑफिस - हजारों मीटिंग और न जाने क्या क्या. जिन्दगी तेज़ रफ़्तार हो चली है और हम हजारों मील दूर चले आये है - उन गलियों से जहा हम ने अपना बचपन गुज़ारा लेकिन फिर भी कभी कभी अनायास ही ऐसा लगता है कि कल ही कि तो बात थी.
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